देहरादून। उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रदेश महासचिव एव पंजाबी संगठन उत्तराखंड के अध्यक्ष डॉक्टर जसविंदर सिह गोगी ने चिपको आंदोलन की 49वीं वर्षगांठ के अवसर पर अपने विचार व्यक्त करते हुये कहा की हरे पेड़ों को काटने के विरोध में सबसे पहला आंदोलन पांच सितम्बर 1730 में अलवर (राजस्थान) में इमरती देवी के नेतृत्व में हुआ था, जिसमें 363 लोगों ने अपना बलिदान दिया था। इसी प्रकार 26 मार्च 1974 को चमोली गढ़वाल के जंगलों में भी ‘चिपको आंदोलन’ हुआ, जिसका नेतृत्व ग्राम रैणी की एक वीरमाता गौरादेवी ने किया था। एक दशक के अन्दर यह पूरे उत्तराखण्ड क्षेत्र में फैल गया था। चिपको आन्दोलन की एक मुख्य बात थी कि इसमें स्त्रियों ने भारी संख्या में भाग लिया था। इस आन्दोलन की शुरुवात 1973 में भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा, कामरेड गोविन्द सिंह रावत, चण्डीप्रसाद भट्ट तथा श्रीमती गौरादेवी के नेत्रत्व मे हुई थी। सन् 1974 में आज ही के दिन रैणी गाँव, चमोली की महिलाओं ने गौरा देवी के नेतृत्व में पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा दी। उन्होंने कहा की हम पर्यावरण संरक्षण के लिए अधिक से अधिक पेड़ लगाने और उन्हें बचाने का संकल्प लें। चिपको पर्यावरणीय आंदोलन ही नहीं है, बल्कि पहाड़ी महिलाओं के दुख-दर्द उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति का भी आंदोलन है। उन्होंने बताया की गौरादेवी का जन्म 1925 में ग्राम लाता (जोशीमठ) में हुआ था।
हम सभी लोग भी चिपको आंदोलन की 49वीं वर्षगांठ पर पर्यावरण की रक्षा के लिए वृक्षों के संरक्षण का संकल्प लें। वनों को बचाने व पर्यावरण संरक्षण के लिए वैसा न पहले कभी हुआ और न शायद होगा। जैसा आज से 49 वर्ष पूर्व हमारी माताओं-बहनों और उत्तराखण्ड के पर्यावरण प्रेमियों ने किया। आज चिपको आंदोलन की 49वीं वर्षगांठ है, इस मौके पर मैं उन सभी को नमन करता हूँ जिन्होंने इस आंदोलन को उठाया, इसमें भाग लिया और पूरे विश्व में यह संदेश दिया कि पर्यावरण हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है, पेड़ पौधों के बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं। पर्यावरण के प्रति वैश्विक जागरूकता लाने वाले चिपको आंदोलन में शामिल स्व. गौरा देवी, स्व. सुन्दरलाल बहुगुणा, चण्डी प्रसाद भट्ट एवं अन्य आंदोलनकारियों द्वारा किये गए कार्य आज भी हम सभी के लिए पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में प्रेरणा स्तंभ हैं।